Glimpses of the Past Summary In English
1757-1849
In India of 1757, the East India Company was in a strong position. Compared to the Indian Princes, they had superior weapons. Besides Indian Princes were short-sighted in their approach to the events of the time. Indian princes were fighting each other. They often sought the help of the Company to defeat other princes. This worked in favour of the company. It could easily subdue these princes one after the other. However, the brave Tipu Sultan of Mysore fought the British. He died in the battle-field fighting the English.
The general reaction to the British rule was not the same everywhere in India. There were some who thanked British for ushering in an era of peace. Others bemoaned that the country was subjected to foreign rule.
1765-1836
The social fabric was in bad shape. Religious leaders preached absurd practices like untouchability and child-marriage. In truth Indians had lost their self-respect. The British scorned them. The farmers and the artisans were the worst hit. Heavy taxes ruined the farmers. The British cut the thumbs of expert artisans. The British used every method to make maximum profits. The imports from England became tax-free.
Raja Ram Mohan Roy (1772-1833)
Ram Mohan Roy understood what was wrong with the country. He tried to reform the society. He taught people that the main precepts of all religions were the same. He 1757-1849 emphasised the practical use of knowledge. He went to England. There he reminded the British that rulers too had a duty towards their subjects. He started newspapers in India. The suspicious British stopped them in 1823.
Oppression (1765-1835)
In 1818, a resolution was passed. Under it an Indian could be jailed without trial in a court. The British officers drew large salaries. Besides, they made fortunes in business. By 1829, Britain was exporting goods worth seven crore rupees to India. Even the British Governor General of India, Bentinck reported to England. “The bones of cotton weavers are bleaching the plains of India.” Thus the British prospered on the ruins of Indian industry.
Dissatisfaction (1835-56)
In 1835, Lord Macaulay suggested that the medium of education in India should be English. The proposal was carried. The aim was to produce an army of clerks to assist the British. It happened but it also produced a new generation of intellectuals. Some of them tried to educate the masses. Some decided to convey the grievances of the people to the British Parliament.
By 1856, the British were ruling the whole of India. Now they cared little about Indians’ needs. The dissatisfaction in the public began to grow. People wanted to get rid of the British. The Sparks (1855-57)
Under the new rules Santhals had become desperate. In 1855 they rose in rebellion and killed the Europeans and their servants alike. The discontent was brewing in the East India Company’s army too. Sepoy Mangal Pandey attacked the adjutant of his regiment. And he was executed. The English did not care about Indian customs. Chapaties were sent from village to village. With them was the message that their native emperor would want their services. Similarly a lotus flower was circulated among Indian soldiers. The masses also gave all help and support.
Revolt 1857
The revolt started at Meerut.
The sepoys who had revolted marched to Delhi. They were shouting slogans in favour of Bahadur Shah Jafar. The rebellion spread wider. Many landlords had lost their lands. They helped the revolt.
The Fight for Freedom 1857
Many rulers like Hazrat Mahal of Lucknow were bitter. The English had taken away their kingdom. Popular leaders like Maulvi Ahmadullah of Faizabad urged the common man to revolt. Azimulla Khan told Tatya Tope to make Nana Sahib the leader of that war of Independence. All over North India the people fought pitched battles against the British. Eighty-year-old Kunwar Singh of Bihar received a bullet in his wrist. He just cut it off. Throwing it into the Ganga, he said that it was his last offering.
Glimpses of the Past Summary In Hindi
1757-1849
1757 के भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी की जड़ें जम चुकी थीं। भारतीय नरेशों की अपेक्षा उनके पास बेहतर असला ( अस्त्र-शस्त्र) था। इसके अतिरिक्त तात्कालिक घटनाओं के प्रति भारतीय नरेशों के पास दूर दृष्टि का अभाव था। भारतीय नरेश एक दूसरे से लड़ रहे थे। प्रायः दूसरे नरेशों को हराने के लिए वे कंपनी की सहायता लेते थे। इससे कंपनी का लाभ हो रहा था। इससे वह एक-एक करके आसानी से इन नरेशों को दबा सकी। फिर भी मैसूर का बहादुर टीपू सुल्तान अंग्रेजों से लोहा लेता रहा। अंग्रेजों से लड़ता हुआ ही वह युद्ध में मारा गया।
अंग्रेजी शासन के प्रति पूरे देश का रवैया एक जैसा न था। कुछ। ऐसे लोग थे जो शांति कायम करने के लिए अंग्रेजों के प्रति आभारी थे। अन्य इस बात को लेकर दुखी थे कि भारत पर विदेशियों का शासन हो गया था।
1765-1836
सामाजिक स्थिति बिगड़ी हुई थी। धर्मगुरु छुआ-छूत और बाल-विवाह जैसी बेहूदा बातों के समर्थन में बात कर रहे थे। सच तो यह है कि भारतीयों का स्वाभिमान जाता रहा था। अंग्रेज उनसे घृणा करते थे। किसानों और दस्तकारों की हालत सबसे बुरी थी। भारी-भरकम करों ने किसानों को तबाह कर दिया था। अंग्रेजों ने कुशल दस्तकारों के अंगूठे काट दिए थे। अधिकतम लाभ कमाने के लिए अंग्रेजों ने हर तरीका अपनाया। इंग्लैंड से आने वाले माल पर कोई टैक्स नहीं था।
राजा राममोहन राय (1772-1833)
देश की बीमारी (खामियों) को राममोहन राय समझ सके। उन्होंने समाज-सुधार का प्रयत्न किया। उन्होंने लोगों को सिखाया कि हर धर्म की मूल शिक्षायें समान थीं। उन्होंने ज्ञान के व्यावहारिक पक्ष पर जोर दिया। वे इंगलैंड गए। वहाँ उन्होंने अंग्रेजों को याद दिलाया कि शासकों का भी अपने शासित के प्रति कुछ कर्तव्य होता है। उन्होंने भारत में समाचार-पत्र प्रारंभ किए। शंकालु अंग्रेजों ने 1823 में उन्हें रोक दिया।
उत्पीड़न (1765-1835)
1818 में एक प्रस्ताव पास हुआ। इसके अधीन किसी भारतीय को बिना कचहरी में मुकदमा चलाये जेल भेजा जा सकता था। अंग्रेज अफसर बड़े-बड़े वेतन लेते थे। इसके अतिरिक्त वे व्यापार में दौलत कमा रहे थे। 1829 तक ब्रिटेन से आयातित होने वाले सामान का मूल्य सात करोड़ रुपये हो चुका था। यहाँ तक कि तत्कालीन भारत के अंग्रेज गवर्नर जनरल बैंटिंक ने इंगलैंड को भेजी अपनी रिपोर्ट में लिखा, “कपास के बुनकरों की हड्डियों से भारत के मैदानों में खून रिस रहा है।” इस प्रकार भारतीय उद्योगों की तबाही पर अंग्रेज समृद्धिशाली हो रहे थे।
असंतोष (1835-56)
सन् 1835 में लाई मैकाले ने भारत में शिक्षा के माध्यम को अंग्रेजी बनाने की सलाह दी। प्रस्ताव स्वीकार हो गया। उद्देश्य क्लर्को की एक फौज खड़ी करना था जो अंग्रेजों की सहायता कर सके। यह हुआ परंतु इसके साथ ही बुद्धिजीवियों की एक नई पीढ़ी तैयार हो गयी। उनमें से कुछ ने सामान्य जन को शिक्षित करने का प्रयत्न किया। कुछ लोगों ने ब्रिटिश पार्लियामेंट में लोगों की शिकायतें रखने का निश्चय किया।
1856 तक ब्रिटिश सारे भारत पर राज्य पा चुके थे। अब उन्हें भारतीयों की आवश्यकताओं की कोई चिन्ता न थी। लोगों में असंतोष बढ़ने लगा। लोग अंग्रेजों से मुक्ति पाना चाहते थे।
चिंगारियाँ (1855-57)
नए कानून से संथालों में रोष था। 1855 में वे विद्रोह कर बैठे और उन्होंने अंग्रेजों व उनके समर्थकों को समान रूप से मारा। यह असंतोष ईस्ट इंडिया कंपनी की फौज में भी बढ़ रहा था। सिपाही मंगल पांडे ने अपनी रेजीमेंट के अधिकारी (एज्युटेंट) पर आक्रमण कर दिया। और उसे फाँसी पर चढ़ा दिया गया। अंग्रेज भारतीय रीति-रिवाजों की परवाह नहीं करते थे। एक गाँव से दूसरे गाँव चपातियाँ भेजी गयीं। उनमें यह संदेश था कि उनके देशी बादशाह को उनकी सेवाओं की जरूरत थी। उसी प्रकार भारतीय सैनिकों के बीच कमल का फूल घूमता रहा। जनता ने भी पूरी सहायता और समर्थन दिया।
1857 का विद्रोह
विद्रोह मेरठ में शुरू हुआ।
जिन सिपाहियों ने विद्रोह किया वे दिल्ली की ओर बढ़े। वे बहादुरशाह जफर के पक्ष में नारे लगा रहे थे। विद्रोह व्यापक रूप से फैल गया। बहुत से जमींदार अपनी जमीनें खो चुके थे। उन्होंने विद्रोह को सहायता दी।
आजादी की लड़ाई 1857
बहुत से शासक जैसे लखनऊ के हजरत महल असंतुष्ट थे। अंग्रेजों ने उनके राज्य हड़प लिए थे। फैजाबाद के मौलवी अहमदुल्ला जैसे लोकप्रिय नेताओं ने विद्रोह के लिए जन साधारण से अनुरोध किया। अजीमुल्लाह खान ने तात्या टोपे से नाना साहेब को उस स्वतंत्रता संग्राम का नेता बनाने को कहा। पूरे उत्तर भारत में लोगों ने अंग्रेजों के खिलाफ डट कर लड़ाई लड़ी। बिहार के अस्सी वर्षीय कुँवर सिंह की कलाई में गोली लगी। उन्होंने तुरंत इसे काट दिया। इसे गंगा में फेंकते हुए उन्होंने कहा यह उनकी अन्तिम भेट (चढ़ावा) थी।