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Class 8th Science
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Class 8 Social Science History
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Online Class For 8th Standard Students (CBSE) (English Medium)
About Lesson

The Summit Within Summary In English

Introduction
Major H.P.S. Ahluwalia was a member of the first successful Indian expedition to Mount Everest in 1965. In this lesson he tells us how he felt as he stood on the Everest.

On Everest
Standing on the Everest, Major Ahluwalia felt very humble. Physically he was very tired. Instead of being very happy, he was jubilant and sad. He was not sure of the reason. He wondered if this sadness was because now there was no higher peak to climb.

A Life-long Joy
Ahluwalia says that after climbing Everest, he felt a deep sense of joy. This joy was to last the rest of his life. He also felt thankful to God.

Other Summit
Ahluwalia had climbed a summit but he thought of another summit. This was the summit of mind. He came to the conclusion that in order to climb a summit, a person needed three qualities. These are—endurance, persistence and will power. It is only with the help of these qualities that a man overcomes obstacles. The climbing of a summit is thus a demonstration of these three qualities. That is why men take delight in overcoming obstacles.

Why Everest ?
Ahluwalia says that a question arises why he chose to climb Everest. He says that the first reason is that he has always loved mountains. Everest is the highest and the mightiest of them all. It is a great struggle against rock and ice. So after climbing this summit there is a joy of having done something which only a few can do. Looking at the peak from a distance, Ahluwalia is transported to another world. He has a mystical feeling. In fact the difficulties of climbing Everest are huge. But this is what attracts him to it. It is a challenge that he finds difficult to resist. Ahluwalia says that the call to face the challenge of overcoming the obstacles was irresistible.

Not A Physical Climb Alone
Climbing Everest is not just a physical achievement or conquest. It brings fulfilment and fame. Besides, the experience is emotional and spiritual also.

Comradeship
Climbing mountains also gives us lessons in comradeship. He gives an example. While climbing two persons have to share a rope. One climber holds the rope firmly while the other climber cuts the steps in the hard ice. Then he belays and the other climber inches his way up. Famous climbers have left records of the help given by others. A single man cannot simply think of being a climber. It’s not only the physical difficulties which will deter him. The difficulties are emotional too. In all those moments the comrades draw inspiration from each other.

Coming Down Everest
Looking down from Everest, the climber feels that the effort was worthwhile. It is an ennobling experience. The climber bows down to God. Ahluwalia left on Everest a picture of Guru Nanak. Rawat left a picture of Goddess Durga. Phu Dorji left a relic of the Buddha. Edmund Hillary had buried a cross under a cairn in the snow. These are all symbols not of conquest but of reverence. So the experience of being on the Everest changes a man completely.

The Summit Within
Each man has within him his own mountain peak. It is fearful and unscalable. Yet no one else but that man has to do it himself. Climbing this inside peak is like climbing Everest too. The effects are the same. Both the climbs change you. The internal summit is perhaps higher than Everest.

The Summit Within Summary In Hindi

भूमिका
सन् 1965 में एवरेस्ट की चोटी पर चढ़ाई करने वाले सफल भारतीय दल में एक सदस्य मेजर एच.पी.एस. अहलूवालिया थे। इस पाठ में हमें वे यह बताते हैं कि एवरेस्ट पर पहुंच कर उन्हें कैसा लगा।।

एवरेस्ट पर
एवरेस्ट पर खड़े होकर मेजर अहलूवालिया ने स्वयं को बड़ा विनम्र अनुभव किया। शारीरिक रूप से वे बहुत थके हुए थे। बहुत प्रसन्न होने के स्थान पर वे बहुत प्रफुल्लित और उदास थे। पक्के तौर पर वे इसका कारण न जानते थे। वे सोचते थे कि उनकी उदासी शायद इस बात को लेकर थी कि अब चढ़ाई करने के लिए इससे अधिक ऊँची कोई और चोटी न बची थी।

जीवन-पर्यन्त आनंद
अहलूवालिया कहते हैं कि एवरेस्ट पर चढ़ने के बाद, उन्हें आनंद की एक गहरी अनुभूति हुई। यह आनंद शेष सारे जीवन बना रहा। उन्हें भगवान के प्रति कृतज्ञता का भी अनुभव हुआ। दूसरी चोटी अहलूवालिया एक चोटी पर चढ़ चुके थे पर वे दूसरी चोटी के बारे में सोचने लगे। यह मस्तिष्क की चोटी थी। वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि किसी चोटी पर चढ़ने के लिए किसी व्यक्ति को तीन गुणों की आवश्यकता होती है-सहन शक्ति, दृढ़ता और इच्छा शक्ति। इन्हीं गुणों की सहायता से कोई व्यक्ति कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करता है। इस प्रकार किसी चोटी पर चढ़ना इन तीन गुणों की अभिव्यक्ति है। यही कारण है कि बाधाओं को पार करने में पुरुषों को मज़ा आता है।

एवरेस्ट ही क्यों ?
अहलूवालिया कहते हैं कि एक प्रश्न उठता है कि उन्होंने एवरेस्ट को क्यों चुना। वे कहते हैं कि प्रथम कारण तो यह है कि उन्हें सदा से पर्वतों से प्यार रहा है। एवरेस्ट उनमें सबसे ऊँचा और सबसे शक्तिशाली है। यहाँ पत्थर और बर्फ से भीषण संघर्ष करना पड़ता है। अत: इस चोटी पर चढ़ने के बाद एक ऐसा काम करने का आनंद मिलता है जो बहुत थोड़े लोग ही कर सकते हैं। कुछ दूरी से चोटी को निहारते हुए अहलूवालिया किसी दूसरे संसार में पहुँच जाते हैं। उन्हें एक अवर्णनीय पर गहन अनुभूति (रहस्यपूर्ण) होती है। वास्तव में एवरेस्ट पर चढ़ाई करने में कठिनाइयां बहुत हैं। पर यही बात उन्हें एवरेस्ट के प्रति आकर्षित करती है। यह वह चुनौती है जिसके आह्वान पर उनसे रुका नहीं जाता है। अहलूवालिया कहते हैं कि चुनौती में आने वाली कठिनाइयों के आह्वान को स्वीकार न करना एक असंभव बात थी।

केवल शरीर की चढ़ाई ही नहीं
एवरेस्ट पर चढ़ाई केवल भौतिक उपलब्धि अथवा विजय नहीं है। इससे बड़ा संतोष और नाम भी मिलता है। इसके अतिरिक्त यह अनुभव भावनात्मक और आध्यात्मिक भी हैं।

मैत्री-भाव
पर्वतों की चढाई हमें मित्रता का पाठ भी पढ़ाती है। वे एक उदाहरण देते हैं। चढाई में दो व्यक्ति एक ही रस्सी पर होते हैं। एक आरोही रस्सी को कसकर पकड़ता है जबकि दूसरा कठोर बर्फ में पैर रखने का स्थान काटता है। फिर वह रस्सी को बाँधता है और दूसरा आरोही इंच-इंच करके ऊपर चढ़ता है। प्रसिद्ध पर्वतारोहियों ने अन्य व्यक्तियों द्वारा मिली सहायता के बारे में लिखा है। अकेला व्यक्ति तो पर्वतारोहण के विषय में सोच भी नहीं सकता है। केवल शारीरिक कठिनाइयाँ ही उसका मार्ग नहीं रोकेगी। कठिनाइयाँ भावनात्मक भी होती हैं। ऐसे सभी क्षणों में मित्र एक-दूसरे से प्रेरणा प्राप्त करते हैं।

एवरेस्ट से उतरना
एवरेस्ट से नीचे नजर डालकर आरोही को लगता है कि आरोहण का प्रयत्न करने योग्य था। यह (मन और आत्मा को) पवित्र बनाने वाला अनुभव है। आरोही भगवान के प्रति सिर झुकाता है। अहलूवालिया ने एवरेस्ट पर गुरु नानक का चित्र रखा। रावत ने दुर्गा देवी का चित्र रखा। फू दोरजी ने बुद्ध का एक स्मृति चिड़ वहाँ रखा। एडमण्ड हिलेरी ने वहाँ पर एक क्रास को गाड़ कर उसके ऊपर एक स्तूप बना दिया। ये सारे चिह्न किसी विजय के नहीं बल्कि श्रद्धा के हैं। अत: एवरेस्ट पर होने का अनुभव किसी व्यक्ति को पूरी तरह बदल देता है।

आंतरिक शिखर
हर व्यक्ति के अंदर अपना एक पर्वत शिखर होता है। यह डरावना और असंभव आरोहण वाला है। फिर भी इस पर चढ़ाई वही व्यक्ति स्वयं ही कर सकता है, अन्य कोई नहीं। इस आंतरिक शिखर पर चढ़ना एवरेस्ट पर चढ़ने के समान भी है। प्रभाव समान होते हैं। दोनों आरोहण आपको बदल देते हैं। आंतरिक शिखर शायद एवरेस्ट से अधिक ऊँचा है।

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